Tuesday, July 14, 2009

Bajarang Bali bajarng baan sunder kand

बजरंग बाण का अमोघ विलक्षण प्रयोग
बजरंग बाणभौतिक मनोकामनाओं की पुर्ति के लिये बजरंग बाण का अमोघ विलक्षण प्रयोग
अपने इष्ट कार्य की सिद्धि के लिए मंगल अथवा शनिवार का दिन चुन लें। हनुमानजी का एक चित्र या मूर्ति जप करते समय सामने रख लें। ऊनी अथवा कुशासन बैठने के लिए प्रयोग करें। अनुष्ठान के लिये शुद्ध स्थान तथा शान्त वातावरण आवश्यक है। घर में यदि यह सुलभ न हो तो कहीं एकान्त स्थान अथवा एकान्त में स्थित हनुमानजी के मन्दिर में प्रयोग करें।हनुमान जी के अनुष्ठान मे अथवा पूजा आदि में दीपदान का विशेष महत्त्व होता है। पाँच अनाजों (गेहूँ, चावल, मूँग, उड़द और काले तिल) को अनुष्ठान से पूर्व एक-एक मुट्ठी प्रमाण में लेकर शुद्ध गंगाजल में भिगो दें। अनुष्ठान वाले दिन इन अनाजों को पीसकर उनका दीया बनाएँ। बत्ती के लिए अपनी लम्बाई के बराबर कलावे का एक तार लें अथवा एक कच्चे सूत को लम्बाई के बराबर काटकर लाल रंग में रंग लें। इस धागे को पाँच बार मोड़ लें। इस प्रकार के धागे की बत्ती को सुगन्धित तिल के तेल में डालकर प्रयोग करें। समस्त पूजा काल में यह दिया जलता रहना चाहिए। हनुमानजी के लिये गूगुल की धूनी की भी व्यवस्था रखें।
जप के प्रारम्भ में यह संकल्प अवश्य लें कि आपका कार्य जब भी होगा, हनुमानजी के निमित्त नियमित कुछ भी करते रहेंगे। अब शुद्ध उच्चारण से हनुमान जी की छवि पर ध्यान केन्द्रित करके बजरंग बाण का जाप प्रारम्भ करें। “श्रीराम से लेकर सिद्ध करैं हनुमान” तक एक बैठक में ही इसकी एक माला जप करनी है।
गूगुल की सुगन्धि देकर जिस घर में बगरंग बाण का नियमित पाठ होता है, वहाँ दुर्भाग्य, दारिद्रय, भूत-प्रेत का प्रकोप और असाध्य शारीरिक कष्ट आ ही नहीं पाते। समयाभाव में जो व्यक्ति नित्य पाठ करने में असमर्थ हो, उन्हें कम से कम प्रत्येक मंगलवार को यह जप अवश्य करना चाहिए।
बजरंग बाण ध्यान
श्रीरामअतुलित बलधामं हेमशैलाभदेहं।दनुज वन कृशानुं, ज्ञानिनामग्रगण्यम्।।सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं।रघुपति प्रियभक्तं वातजातं नमामि।।
दोहानिश्चय प्रेम प्रतीति ते, विनय करैं सनमान।तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान।।
चौपाईजय हनुमन्त सन्त हितकारी। सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी।।जन के काज विलम्ब न कीजै। आतुर दौरि महा सुख दीजै।।जैसे कूदि सिन्धु वहि पारा। सुरसा बदन पैठि विस्तारा।।आगे जाय लंकिनी रोका। मारेहु लात गई सुर लोका।।जाय विभीषण को सुख दीन्हा। सीता निरखि परम पद लीन्हा।।बाग उजारि सिन्धु मंह बोरा। अति आतुर यम कातर तोरा।।अक्षय कुमार को मारि संहारा। लूम लपेटि लंक को जारा।।लाह समान लंक जरि गई। जै जै धुनि सुर पुर में भई।।अब विलंब केहि कारण स्वामी। कृपा करहु प्रभु अन्तर्यामी।।जय जय लक्ष्मण प्राण के दाता। आतुर होई दुख करहु निपाता।।जै गिरधर जै जै सुख सागर। सुर समूह समरथ भट नागर।।ॐ हनु-हनु-हनु हनुमंत हठीले। वैरहिं मारू बज्र सम कीलै।।गदा बज्र तै बैरिहीं मारौ। महाराज निज दास उबारों।।सुनि हंकार हुंकार दै धावो। बज्र गदा हनि विलम्ब न लावो।।ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं हनुमंत कपीसा। ॐ हुँ हुँ हुँ हनु अरि उर शीसा।।सत्य होहु हरि सत्य पाय कै। राम दुत धरू मारू धाई कै।।जै हनुमन्त अनन्त अगाधा। दुःख पावत जन केहि अपराधा।।पूजा जप तप नेम अचारा। नहिं जानत है दास तुम्हारा।।वन उपवन जल-थल गृह माहीं। तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं।।पाँय परौं कर जोरि मनावौं। अपने काज लागि गुण गावौं।।जै अंजनी कुमार बलवन्ता। शंकर स्वयं वीर हनुमंता।।बदन कराल दनुज कुल घालक। भूत पिशाच प्रेत उर शालक।।भूत प्रेत पिशाच निशाचर। अग्नि बैताल वीर मारी मर।।इन्हहिं मारू, तोंहि शमथ रामकी। राखु नाथ मर्याद नाम की।।जनक सुता पति दास कहाओ। ताकी शपथ विलम्ब न लाओ।।जय जय जय ध्वनि होत अकाशा। सुमिरत होत सुसह दुःख नाशा।।उठु-उठु चल तोहि राम दुहाई। पाँय परौं कर जोरि मनाई।।ॐ चं चं चं चं चपल चलन्ता। ॐ हनु हनु हनु हनु हनु हनुमंता।।ॐ हं हं हांक देत कपि चंचल। ॐ सं सं सहमि पराने खल दल।।अपने जन को कस न उबारौ। सुमिरत होत आनन्द हमारौ।।ताते विनती करौं पुकारी। हरहु सकल दुःख विपति हमारी।।ऐसौ बल प्रभाव प्रभु तोरा। कस न हरहु दुःख संकट मोरा।।हे बजरंग, बाण सम धावौ। मेटि सकल दुःख दरस दिखावौ।।हे कपिराज काज कब ऐहौ। अवसर चूकि अन्त पछतैहौ।।जन की लाज जात ऐहि बारा। धावहु हे कपि पवन कुमारा।।जयति जयति जै जै हनुमाना। जयति जयति गुण ज्ञान निधाना।।जयति जयति जै जै कपिराई। जयति जयति जै जै सुखदाई।।जयति जयति जै राम पियारे। जयति जयति जै सिया दुलारे।।जयति जयति मुद मंगलदाता। जयति जयति त्रिभुवन विख्याता।।ऐहि प्रकार गावत गुण शेषा। पावत पार नहीं लवलेषा।।राम रूप सर्वत्र समाना। देखत रहत सदा हर्षाना।।विधि शारदा सहित दिनराती। गावत कपि के गुन बहु भाँति।।तुम सम नहीं जगत बलवाना। करि विचार देखउं विधि नाना।।यह जिय जानि शरण तब आई। ताते विनय करौं चित लाई।।सुनि कपि आरत वचन हमारे। मेटहु सकल दुःख भ्रम भारे।।एहि प्रकार विनती कपि केरी। जो जन करै लहै सुख ढेरी।।याके पढ़त वीर हनुमाना। धावत बाण तुल्य बनवाना।।मेटत आए दुःख क्षण माहिं। दै दर्शन रघुपति ढिग जाहीं।।पाठ करै बजरंग बाण की। हनुमत रक्षा करै प्राण की।।डीठ, मूठ, टोनादिक नासै। परकृत यंत्र मंत्र नहीं त्रासे।।भैरवादि सुर करै मिताई। आयुस मानि करै सेवकाई।।प्रण कर पाठ करें मन लाई। अल्प-मृत्यु ग्रह दोष नसाई।।आवृत ग्यारह प्रतिदिन जापै। ताकी छाँह काल नहिं चापै।।दै गूगुल की धूप हमेशा। करै पाठ तन मिटै कलेषा।।यह बजरंग बाण जेहि मारे। ताहि कहौ फिर कौन उबारे।।शत्रु समूह मिटै सब आपै। देखत ताहि सुरासुर काँपै।।तेज प्रताप बुद्धि अधिकाई। रहै सदा कपिराज सहाई।।दोहाप्रेम प्रतीतिहिं कपि भजै। सदा धरैं उर ध्यान।।तेहि के कारज तुरत ही, सिद्ध करैं हनुमान।।

00 पारायण विधि
पारायण विधिश्रीरामचरित मानस का विधिपूर्वक पाठ करने से पुर्व श्रीतुलसीदासजी, श्रीवाल्मीकिजी, श्रीशिवजी तथा श्रीहनुमानजी का आवाहन-पूजन करने के पश्चात् तीनों भाइयों सहित श्रीसीतारामजी का आवाहन, षोडशोपचार-पूजन और ध्यान करना चाहिये। तदन्तर पाठ का आरम्भ करना चाहियेः-आवाहन मन्त्रःतुलसीक नमस्तुभ्यमिहागच्छ शुचिव्रत।नैर्ऋत्य उपविश्येदं पूजनं प्रतिगृह्यताम्।।१।।ॐ तुलसीदासाय नमःश्रीवाल्मीक नमस्तुभ्यमिहागच्छ शुभप्रद।उत्तरपूर्वयोर्मध्ये तिष्ठ गृह्णीष्व मेऽर्चनम्।।२।।ॐ वाल्मीकाय नमःगौरीपते नमस्तुभ्यमिहागच्छ महेश्वर।पूर्वदक्षिणयोर्मध्ये तिष्ठ पूजां गृहाण मे।।३।।ॐ गौरीपतये नमःश्रीलक्ष्मण नमस्तुभ्यमिहागच्छ सहप्रियः।याम्यभागे समातिष्ठ पूजनं संगृहाण मे।।४।।ॐ श्रीसपत्नीकाय लक्ष्मणाय नमःश्रीशत्रुघ्न नमस्तुभ्यमिहागच्छ सहप्रियः।पीठस्य पश्चिमे भागे पूजनं स्वीकुरुष्व मे।।५।।ॐ श्रीसपत्नीकाय शत्रुघ्नाय नमःश्रीभरत नमस्तुभ्यमिहागच्छ सहप्रियः।पीठकस्योत्तरे भागे तिष्ठ पूजां गृहाण मे।।६।।ॐ श्रीसपत्नीकाय भरताय नमःश्रीहनुमन्नमस्तुभ्यमिहागच्छ कृपानिधे।पूर्वभागे समातिष्ठ पूजनं स्वीकुरु प्रभो।।७।।ॐ हनुमते नमः
अथ प्रधानपूजा च कर्तव्या विधिपूर्वकम्।पुष्पाञ्जलिं गृहीत्वा तु ध्यानं कुर्यात्परस्य च।।८।।
रक्ताम्भोजदलाभिरामनयनं पीताम्बरालंकृतंश्यामांगं द्विभुजं प्रसन्नवदनं श्रीसीतया शोभितम्।कारुण्यामृतसागरं प्रियगणैर्भ्रात्रादिभिर्भावितंवन्दे विष्णुशिवादिसेव्यमनिशं भक्तेष्टसिद्धिप्रदम्।।९।।आगच्छ जानकीनाथ जानक्या सह राघव।गृहाण मम पूजां च वायुपुत्रादिभिर्युतः।।१०।।
इत्यावाहनम्सुवर्णरचितं राम दिव्यास्तरणशोभितम्।आसनं हि मया दत्तं गृहाण मणिचित्रितम्।।११।।
इति षोडशोपचारैः पूजयेत्ॐ अस्य श्रीमन्मानसरामायणश्रीरामचरितस्य श्रीशिवकाकभुशुण्डियाज्ञवल्क्यगोस्वामीतुलसीदासा ऋषयः श्रीसीतरामो देवता श्रीरामनाम बीजं भवरोगहरी भक्तिः शक्तिः मम नियन्त्रिताशेषविघ्नतया श्रीसीतारामप्रीतिपूर्वकसकलमनोरथसिद्धयर्थं पाठे विनियोगः।अथाचमनम्श्रीसीतारामाभ्यां नमः। श्रीरामचन्द्राय नमः।श्रीरामभद्राय नमः।इति मन्त्रत्रितयेन आचमनं कुर्यात्। श्रीयुगलबीजमन्त्रेण प्राणायामं कुर्यात्।।अथ करन्यासःजग मंगल गुन ग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के।।अगुंष्ठाभ्यां नमःराम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि न पापपुंज समुहाहीं।।तर्जनीभ्यां नमःराम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका।।मध्यमाभ्यां नमःउमा दारु जोषित की नाईं। सबहि नचावत रामु गोसाईं।।अनामिकाभ्यां नमःसन्मुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।कनिष्ठिकाभ्यां नमःमामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक।।करतलकरपृष्ठाभ्यां नमःइति करन्यासः
अथ ह्रदयादिन्यासःजग मंगल गुन ग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के।।ह्रदयाय नमः।राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि न पापपुंज समुहाहीं।।शिरसे स्वाहा।राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका।।शिखायै वषट्।उमा दारु जोषित की नाईं। सबहि नचावत रामु गोसाईं।।कवचाय हुम्सन्मुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।नेत्राभ्यां वौषट्मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक।।अस्त्राय फट्इति ह्रदयादिन्यासः
अथ ध्यानम्मामवलोकय पंकजलोचन। कृपा बिलोकनि सोच बिमोचन।।नील तामरस स्याम काम अरि। ह्रदय कंज मकरंद मधुप हरि।।जातुधान बरुथ बल भंजन। मुनि सज्जन रंजन अघ गंजन।।भूसुर ससि नव बृंद बलाहक। असरन सरन दीन जन गाहक।।भुजबल बिपुल भार महि खंडित। खर दूषन बिराध बध पंडित।।रावनारि सुखरुप भूपबर। जय दसरथ कुल कुमुद सुधाकर।।सुजस पुरान बिदित निगमागम। गावत सुर मुनि संत समागम।।कारुनीक ब्यलीक मद खंडन। सब विधि कुसल कोसला मंडन।।कलि मल मथन नाम ममताहन। तुलसिदास प्रभु पाहि प्रनत जन।।इति ध्यानम्

05 सुन्दरकाण्ड
सुन्दरकाण्ड
॥ अथ तुलसीदास कृत रामचरितमानस सुन्दरकाण्ड ॥श्रीगणेशाय नमःश्रीजानकीवल्लभोविजयतेश्रीरामचरितमानसपञ्चम सोपान-सुन्दरकाण्ड
श्लोक शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदंब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदांतवेद्यं विभुम् ।रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिंवन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम् ॥ १ ॥
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीयेसत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा ।भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ २ ॥
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहंदनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।सकलगुणनिधानं वानराणामधीशंरघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ॥ ३ ॥
चौ॰-जामवंत के बचन सुहाए । सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ॥तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई । सहि दुख कंद मूल फल खाई ॥ १ ॥जब लगि आवौं सीतहि देखी । होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ॥यह कह नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा ॥ २ ॥सिंधु तीर एक भूधर सुंदर । कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ॥बार बार रघुबीर सँभारी । तरकेउ पवनतनय बल भारी ॥ ३ ॥जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता । चलेउ सो गा पाताल तुरंता ॥जिमि अमोघ रघुपति कर बाना । एही भाँति चलेउ हनुमाना ॥ ४ ॥जलनिधि रघुपति दूत बिचारी । तैं मैनाक होहि श्रमहारी ॥ ५ ॥
दोहाहनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम ।राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम ॥ १ ॥
चौ॰-जात पवनसुत देवन्ह देखा । जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा ॥सुरसा नाम अहिन्ह कै माता । पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता ॥ १ ॥आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा । सुनत बचन कह पवनकुमारा ॥राम काजु करि फिरि मैं आवौं । सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं ॥ २ ॥तब तव बदन पैठिहउँ आई । सत्य कहउँ मोहि जान दे माई ॥कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना । ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना ॥ ३ ॥जोजन भरि तिहिं बदनु पसारा । कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ । तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ ॥ ४ ॥जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा । तासु दून कपि रूप देखावा ॥सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा । अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा ॥ ५ ॥बदन पइठि पुनि बाहेर आवा । मागा बिदा ताहि सिरु नावा ॥मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा । बुधि बल मरमु तोर मैं पावा ॥ ६ ॥
दोहाराम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान ।आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान ॥ २ ॥
चौ॰-निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई ॥ करि माया नभु के खग गहई ॥जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं । जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं ॥ १ ॥गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई । एहि बिधि सदा गगनचर खाई ॥सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा । तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ॥ २ ॥ताहि मारि मारुतसुत बीरा । बारिधि पार गयउ मतिधीरा ॥तहाँ जाइ देखी बन सोभा । गुंजत चंचरीक मधु लोभा ॥ ३ ॥नाना तरु फल फूल सुहाए । खग मृग बृंद देखि मन भाए ॥सैल बिसाल देखि एक आगें । ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें ॥ ४ ॥उमा न कछु कपि कै अधिकाई ॥ प्रभु प्रताप जो कालहि खाई ॥गिरि पर चढ़ि लंका तेहि देखी । कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी ॥ ५ ॥अति उतंग जलनिधि चहु पासा । कनक कोटि कर परम प्रकासा ॥ ६ ॥
छंदकनक कोटि बिचित्र मणि कृत सुंदरायतना घना ।चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहुबिधि बना ॥गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै ।बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै ॥ १ ॥बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं ।नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहहीं ॥कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं ।नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं ॥ २ ॥करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं ।कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं ॥एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही ।रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही ॥ ३ ॥
दोहापुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार ।अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार ॥ ३ ॥
चौ॰-मसक समान रूप कपि धरी । लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ॥नाम लंकिनी एक निसिचरी । सो कह चलेसि मोहि निंदरी ॥ १ ॥जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा । मोर अहार जहाँ लगि चोरा ॥मुठिका एक महा कपि हनी । रुधिर बमत धरनीं डनमनी ॥ २ ॥पुनि संभारि उठी सो लंका । जोरि पानि कर बिनय ससंका ॥जब रावनहि ब्रह्म कर दीन्हा । चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ॥ ३॥बिकल होसि तैं कपि कें मारे । तब जानेसु निसिचर संघारे ॥तात मोर अति पुन्य बहूता । देखेउँ नयन राम कर दूता ॥ ४ ॥
दोहातात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥ ४ ॥
चौ॰-प्रबिसि नगर कीजे सब काजा । हृदयँ राखि कोसलपुर राजा ॥गरल सुधा रिपु करहिं मिताई । गोपद सिंधु अनल सितलाई ॥ १ ॥गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही । राम कृपा करि चितवा जाही ॥अति लघु रूप धरेउ हनुमाना । पैठा नगर सुमिरि भगवाना ॥ २ ॥मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा । देखे जहँ तहँ अगनित जोधा ॥गयउ दसानान मंदिर माहीं । अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं ॥ ३ ॥सयन किएँ देखा कपि तेही । मंदिर महुँ न दीखि बैदेही ॥भवन एक पुनि दीख सुहावा । हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा ॥ ४ ॥
दोहारामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ ।नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराइ ॥ ५ ॥
चौ॰-लंका निसिचर निकर निवासा । इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ॥मन महुँ तरक करैं कपि लागा । तेहीं समय बिभीषनु जागा ॥ १ ॥राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा । हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा ॥एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी । साधु ते होइ न कारज हानी ॥ २ ॥बिप्र रूप धरि बचन सुनाए । सुनत बिभीषन उठि तहँ आए ॥करि प्रनाम पूँछी कुसलाई । बिप्र कहहु निज कथा बुझाई ॥ ३ ॥की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई । मोरें हृदय प्रीति अति होई ॥की तुम्ह रामु दीन अनुरागी । आयहु मोहि करन बड़भागी ॥ ४ ॥
दोहातब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम ।सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ॥ ६ ॥
चौ॰-सुनहु पवनसुत रहनि हमारी । जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी ॥तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा । करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा ॥ १ ॥तामस तनु कछु साधन नाहीं । प्रीति न पद सरोज मन माहीं ॥अब मोहि भा भरोस हनुमंता । बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ॥ २ ॥जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा । तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा ॥सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती । करहिं सदा सेवक पर प्रीती ॥ ३ ॥कहहु कवन मैं परम कुलीना । कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ॥प्रात लेइ जो नाम हमारा । तेहि दिन ताहि न मिले अहारा ॥ ४ ॥
दोहाअस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर ।कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥ ७ ॥
चौ॰-जानतहूँ अस स्वामि बिसारी । फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी ॥एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा । पावा अनिर्बाच्य विश्रामा ॥ १ ॥पुनि सब कथा बिभीषन कही । जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही ॥तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता । देखी चलेउँ जानकी माता ॥ २ ॥जुगुति बिभीषन सकल सुनाई । चलेउ पवनसुत बिदा कराई ॥करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ । बन असोक सीता रह जहवाँ ॥ ३ ॥देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा । बैठेहिं बीति जात निसि जामा ॥कृस तनु सीस जटा एक बेनी । जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी ॥ ४ ॥
दोहानिज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन ।परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥ ८ ॥
चौ॰-तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई । करइ बिचार करौं का भाई ॥तेहि अवसर रावनु तहँ आवा । संग नारि बहु किएँ बनावा ॥ १ ॥बहु बिधि खल सीतहि समुझावा । साम दान भय भेद देखावा ॥कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी । मंदोदरी आदि सब रानी ॥ २ ॥तव अनुचरीं करेउँ पन मोरा । एक बार बिलोकु मम ओरा ॥तृन धरि ओट कहति बैदेही । सुमिरि अवधपति परम सनेही ॥ ३ ॥सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा । कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा ॥अस मन समुझु कहति जानकी । खल सुधि नहिं रघुबीर बान की ॥ ४ ॥सठ सूनें हरि आनेहि मोही । अधम निलज्ज लाज नहिं तोही ॥ ५ ॥
दोहाआपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान ।परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ॥ ९ ॥
चौ॰-सीता तैं मम कृत अपमाना । कटिहउँ तब सिर कठिन कृपाना ॥नाहिं त सपदि मानु मम बानी । सुमुखि होति न त जीवन हानी ॥ १ ॥स्याम सरोज दाम सम सुंदर । प्रभु भुज करि कर सम दसकंदर ॥सो भुज कंठ कि तव असि घोरा । सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा ॥ २ ॥चंद्रहास हरु मम परितापं । रघुपति बिरह अनल संजातं ॥सीतल निसित बहसि बर धारा । कह सीता हरु मम दुख भारा ॥ ३ ॥सुनत बचन पुनि मारन धावा । मयतनयाँ कहि नीति बुझावा ॥कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई । सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई ॥ ४ ॥मास दिवस महुँ कहा न माना । तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना ॥ ५ ॥
दोहाभवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद ।सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद ॥ १० ॥
चौ॰-त्रिजटा नाम राच्छसी एका । राम चरन रति निपुन बिबेका ॥सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना । सीतहि सेइ करहु हित अपना ॥ १ ॥सपनें बानर लंका जारी । जातुधान सेना सब मारी ॥खर आरूढ़ नगन दससीसा । मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ॥ २ ॥एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई । लंका मनहुँ बिभीषन पाई ॥नगर फिरी रघुबीर दोहाई । तब प्रभु सीता बोलि पठाई ॥ ३ ॥यह सपना मैं कहउँ पुकारी । होइहि सत्य गएँ दिन चारी ॥तासु बचन सुनि ते सब डरीं । जनकसुता के चरनन्हि परीं ॥ ४ ॥
दोहाजहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच ।मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ॥ ११ ॥
चौ॰-त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी । मातु बिपति संगिनि तैं मोरी ॥तजौं देह करु बेगि उपाई । दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई ॥ १ ॥आनि काठ रचु चिता बनाई । मातु अनल पुनि देहु लगाई ॥सत्य करहि मम प्रीति सयानी । सुनै को श्रवन सूल सम बानी ॥ २ ॥सुनत बचन पद गहि समुझाएसि । प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि ॥निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी । अस कहि सो निज भवन सिधारी ॥ ३ ॥कह सीता बिधि भा प्रतिकूला । मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला ॥देखिअत प्रगट गगन अंगारा । अवनि न आवत एकउ तारा ॥ ४ ॥पावकमय ससि स्रवत न आगी । मानहुँ मोहि जानि हतभागी ॥सुनहि बिनय मम बिटप असोका । सत्य नाम करु हरु मम सोका ॥ ५ ॥नूतन किसलय अनल समाना । देहि अगिनि जनि करहि निदाना ॥देखि परम बिरहाकुल सीता । सो छन कपिहि कलप सम बीता ॥ ६ ॥
दोहाकपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब ।जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ ॥ १२ ॥
चौ॰-तब देखी मुद्रिका मनोहर । राम नाम अंकित अति सुंदर ॥चकित चितव मुदरी पहिचानी । हरष विषाद हृदयँ अकुलानी ॥ १ ॥जीति को सकइ अजय रघुराई । माया तें असि रचि नहिं जाई ॥सीता मन बिचार कर नाना । मधुर बचन बोलेउ हनुमाना ॥ २ ॥रामचंद्र गुन बरनैं लागा । सुनतहिं सीता कर दुख भागा ॥लागीं सुनैं श्रवन मन लाई । आदिहु तें सब कथा सुनाई ॥ ३ ॥श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई । कही सो प्रगट होति किन भाई ॥तब हनुमंत निकट चलि गयऊ । फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ॥ ४ ॥राम दूत मैं मातु जानकी । सत्य सपथ करुनानिधान की ॥यह मुद्रिका मातु मैं आनी । दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी ॥ ५ ॥नर बानरहि संग कहु कैसें । कही कथा भई संगति जैसें ॥ ६ ॥
दोहाकपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास ।जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥ १३ ॥
चौ॰-हरिजन हानि प्रीति अति गाढ़ी । सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी ॥बूड़त बिरह जलधि हनुमाना । भयहु तात मो कहुँ जलजाना ॥ १ ॥अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी । अनुज सहित सुख भवन खरारी ॥कोमलचित कृपाल रघुराई । कपि केहि हेतु धरी निठुराई ॥ २ ॥सहज बानि सेवक सुख दायक । कबहुँक सुरति करत रघुनायक ॥कबहुँ नयन मम सीतल ताता । होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता ॥ ३ ॥बचनु न आव नयन भरे बारी । अहह नाथ हौं निपट बिसारी ॥देखि परम बिरहाकुल सीता । बोला कपि मृदु बचन बिनीता ॥ ४ ॥मातु कुसल प्रभु अनुज समेता । तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ॥जनि जननी मानहु जियँ ऊना । तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना ॥ ५ ॥
दोहारघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर ।अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर ॥ १४ ॥
चौ॰-कहेउ राम बियोग तव सीता । मो कहुँ सकल भए बिपरीता ॥नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू । कालनिसा सम निसि ससि भानू ॥ १ ॥कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा । बारिद तपत तेल जनु बरिसा ॥जे हित रहे करत तेइ पीरा । उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा ॥ २ ॥कहेहू तें कछु दुख घटि होई । काहि कहौं यह जान न कोई ॥तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा । जानत प्रिया एकु मनु मोरा ॥ ३ ॥सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं । जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं ॥प्रभु संदेसु सुनत बैदेही । मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ॥ ४ ॥कह कपि हृदयँ धीर धरु माता । सुमिरु राम सेवक सुखदाता ॥उर आनहु रघुपति प्रभुताई । सुनि मम बचन तजहु कदराई ॥ ५ ॥
दोहानिसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु ।जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ॥ १५ ॥
चौ॰-जौं रघुबीर होति सुधि पाई । करते नहिं बिलंबु रघुराई ॥राम बान रबि उएँ जानकी । तम बरूथ कहँ जातुधान की ॥ १ ॥अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई । प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई ॥कछुक दिवस जननी धरु धीरा । कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ॥ २ ॥निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं । तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं ॥हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना । जातुधान अति भट बलवाना ॥ ३ ॥मोरें हृदय परम संदेहा । सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा ॥कनक भूधराकार सरीरा । समर भयंकर अतिबल बीरा ॥ ४ ॥सीता मन भरोस तब भयऊ । पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ ॥ ५ ॥
दोहासुनु मात साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल ।प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ॥ १६ ॥
चौ॰-मन संतोष सुनत कपि बानी । भगति प्रताप तेज बल सानी ॥आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना । होहु तात बल सील निधाना ॥ १ ॥अजर अमर गुननिधि सुत होहू । करहुँ बहुत रघुनायक छोहू ॥करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना । निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ॥ २ ॥बार बार नाएसि पद सीसा । बोला बचन जोरि कर कीसा ॥अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता । आसिष तव अमोघ बिख्याता ॥ ३ ॥सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा । लागि देखि सुंदर फल रूखा ॥सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी । परम सुभट रजनीचर भारी ॥ ४ ॥तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं । जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं ॥ ५ ॥
दोहादेखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु ।रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ॥ १७ ॥
चौ॰-चलेउ नाइ सिर पैठेउ बागा । फल खाएसि तरु तौरैं लागा ॥रहे तहां बहु भट रखवारे । कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे ॥ १ ॥नाथ एक आवा कपि भारी । तेहिं असोक बाटिका उजारी ॥खाएसि फल अरु बिटप उपारे । रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे ॥ २ ॥सुनि रावन पठए भट नाना । तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना ॥सब रजनीचर कपि संघारे । गए पुकारत कछु अधमारे ॥ ३ ॥पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा । चला संग लै सुभट अपारा ॥आवत देखि बिटप गहि तर्जा । ताहि निपाति महाधुनि गर्जा ॥ ४ ॥
दोहाकछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि ।कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि ॥ १८ ॥
चौ॰-सुनि सुत बध लंकेस रिसाना । पठएसि मेघनाद बलवाना ॥मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही । देखिअ कपिहि कहाँ कर आही ॥ १ ॥चला इंद्रजित अतुलित जोधा । बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ॥कपि देखा दारुन भट आवा । कटकटाइ गर्जा अरु धावा ॥ २ ॥अति बिसाल तरु एक उपारा । बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा ॥रहे महाभट ताके संगा । गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा ॥ ३ ॥तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा । भिरे जुगल मानहुँ गजराजा ॥मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई । ताहि एक छन मुरुछा आई ॥ ४ ॥उठि बहोरि कीन्हसि बहु माया । जीति न जाइ प्रभंजन जाया ॥ ५ ॥
दोहाब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार ।जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ॥ १९ ॥
चौ॰-ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा । परतिहुँ बार कटकु संघारा ॥तेहिं देखा कपि मुरुछित भयउ । नागपास बांधेसि लै गयउ ॥ १ ॥जासु नाम जपि सुनहु भवानी । भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ॥तासु दूत कि बंध तरु आवा । प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा ॥ २ ॥कपि बंधन सुनि निसिचर धाए । कौतुक लागि सभाँ सब आए ॥दसमुख सभा दीखि कपि जाई । कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ॥ ३ ॥कर जोरें सुर दिसिप बिनीता । भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ॥देखि प्रताप न कपि मन संका । जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ॥ ४ ॥
दोहाकपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद ।सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद ॥ २० ॥
चौ॰-कह लंकेस कवन तैं कीसा । केहि कें बल घालेहि बन खीसा ॥की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही । देखउँ अति असंक सठ तोही ॥ १ ॥मारे निसिचर केहिं अपराधा । कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा ॥सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया । पाइ जासु बल बिरचित माया ॥ २ ॥जाकें बल बिरंचि हरि ईसा । पालत सृजत हरत दससीसा ॥जा बल सीस धरत सहसानन । अंडकोस समेत गिरि कानन ॥ ३ ॥धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता । तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता ॥हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा । तेहि समेत नृप दल मद गंजा ॥ ४ ॥खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली । बधे सकल अतुलित बलसाली ॥ ५ ॥
दोहाजाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि ।तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥ २१ ॥
चौ॰-जानेउ मैं तुम्हारि प्रभुताई । सहसबाहु सन परी लराई ॥समर बालि सन करि जसु पावा । सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा ॥ १ ॥खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा । कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा ॥सब कें देह परम प्रिय स्वामी । मारहिं मोहि कुमारग गामी ॥ २ ॥जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे । तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे ॥मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा । कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ॥ ३ ॥बिनती करउँ जोरि कर रावन । सुनहु मान तजि मोर सिखावन ॥देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी । भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी ॥ ४ ॥जाकें डर अति काल डेराई । जो सुर असुर चराचर खाई ॥तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै । मोरे कहें जानकी दीजै ॥ ५ ॥
दोहाप्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि ।गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ॥ २२ ॥
चौ॰-राम चरन पंकज उर धरहू । लंकाँ अचल राज तुम्ह करहू ॥रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका । तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका ॥ १ ॥राम नाम बिनु गिरा न सोहा । देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ॥बसन हीन नहिं सोह सुरारी । सब भूषन भूषित बर नारी ॥ २ ॥राम बिमुख संपति प्रभुताई । जाइ रही पाई बिनु पाई ॥सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं । बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं ॥ ३ ॥सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी । बिमुख राम त्राता नहिं कोपी ॥संकर सहस बिष्नु अज तोही । सकहिं न राखि राम कर द्रोही ॥ ४ ॥
दोहामोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान ।भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ॥ २३ ॥
चौ॰-जदपि कही कपि अति हित बानी । भगति बिबेक बिरति नय सानी ॥बोला बिहसि महा अभिमानी । मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी ॥ १ ॥मृत्यु निकट आई खल तोही । लागेसि अधम सिखावन मोही ॥उलटा होइहि कह हनुमाना । मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना ॥ २ ॥सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना । बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना ॥सुनत निसाचर मारन धाए । सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए ॥ ३ ॥नाइ सीस करि बिनय बहूता । नीति बिरोधा न मारिअ दूता ॥आन दंड कछु करिअ गोसाँई । सबहीं कहा मंत्र भल भाई ॥ ४ ॥सुनत बिहसि बोला दसकंधर । अंग भंग करि पठइअ बंदर ॥ ५ ॥
दोहाकपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ ।तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ ॥ २४ ॥
चौ॰-पूँछ हीन बानर तहँ जाइहि । तब सठ निज नाथहि लइ आइहि ॥जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई । देखउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई ॥ १ ॥बचन सुनत कपि मन मुसुकाना । भइ सहाय सारद मैं जाना ॥जातुधान सुनि रावन बचना । लागे रचें मूढ़ सोइ रचना ॥ २ ॥रहा न नगर बसन घृत तेला । बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला ॥कौतुक कहँ आए पुरबासी । मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी ॥ ३ ॥बाजहिं ढोल देहिं सब तारी । नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी ॥पावक जरत देखि हनुमंता । भयउ परम लघुरूप तुरंता ॥ ४ ॥निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं । भइँ सभीत निसाचर नारीं ॥ ५ ॥
दोहाहरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास ।अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास ॥ २५ ॥
चौ॰-देह बिसाल परम हरुआई । मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई ॥जरइ नगर भा लोग बिहाला । झपट लपट बहु कोटि कराला ॥ १ ॥तात मातु हा सुनिअ पुकारा । एहिं अवसर को हमहि उबारा ॥हम जो कहा यह कपि नहिं होई । बानर रूप धरें सुर कोई ॥ २ ॥साधु अवग्या कर फलु ऐसा । जरइ नगर अनाथ कर जैसा ॥जारा नगर निमिष एक माहीं । एक बिभीषन कर गृह नाहीं ॥ ३ ॥ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा । जरा न सो तेहि कारन गिरिजा ॥उलटि पलटि लंका सब जारी । कूदि परा पुनि सिंधु मझारी ॥ ४ ॥
दोहापूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि ।जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि ॥ २६ ॥
चौ॰-मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा । जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ॥चूड़ामनि उतारि तब दयऊ । हरष समेत पवनसुत लयऊ ॥ १ ॥कहेहु तात अस मोर प्रनामा । सब प्रकार प्रभु पूरनकामा ॥दीन दयाल बिरिदु सँभारी । हरहु नाथ मम संकट भारी ॥ २ ॥तात सक्रसुत कथा सुनाएहु । बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु ॥मास दिवस महुँ नाथ न आवा । तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा ॥ ३ ॥कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना । तुम्हहू तात कहत अब जाना ॥तोहि देखि सीतलि भइ छाती । पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती ॥ ४ ॥
दोहाजनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह ।चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह ॥ २७ ॥
चौ॰-चलत महाधुनि गर्जेसि भारी । गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी ॥नाघि सिंधु एहि पारहि आवा । सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा ॥ १ ॥हरषे सब बिलोकि हनुमाना । नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ॥मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा । कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा ॥ २ ॥मिले सकल अति भए सुखारी । तलफत मीन पाव जिमि बारी ॥चले हरषि रघुनायक पासा । पूँछत कहत नवल इतिहासा ॥ ३ ॥तब मधुबन भीतर सब आए । अंगद संमत मधु फल खाए ॥रखवारे जब बरजन लागे मुष्टि प्रहार हनत सब भागे ॥ ४ ॥
दोहाजाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज ।सुन सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥ २८ ॥
चौ॰-जौं न होति सीता सुधि पाई । मधुबन के फल सकहिं कि खाई ॥एहि बिधि मन बिचार कर राजा । आइ गए कपि सहित समाजा ॥ १ ॥आइ सबन्हि नावा पद सीसा । मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा ॥पूँछी कुसल कुसल पद देखी । राम कृपाँ भा काजु बिसेषी ॥ २ ॥नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना । राखे सकल कपिन्ह के प्राना ॥सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ । कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ ॥ ३ ॥राम कपिन्ह जब आवत देखा । किएँ काजु मन हरष बिसेषा ॥फटिक सिला बैठे द्वौ भाई । परे सकल कपि चरनन्हि जाई ॥ ४ ॥
दोहाप्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज ।पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥ २९॥
चौ॰-जामवंत कह सुनु रघुराया । जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया ॥ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर । सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर ॥ १ ॥सोइ बिजई बिनई गुन सागर । तासु सुजसु त्रैलोक उजागर ॥प्रभु कीं कृपा भयउ सब काजू । जन्म हमार सुफल भा आजू ॥ २ ॥नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी । सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी ॥पवनतनय के चरित सुहाए । जामवंत रघुपतिहि सुनाए ॥ ३ ॥सुनत कृपानिधि मन अति भाए । पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए ॥कहहु तात केहि भाँति जानकी । रहति करति रच्छा स्वप्रान की ॥ ४ ॥
दोहाचौ॰-नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट ।लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥ ३० ॥
चौ॰-चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही । रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही ॥नाथ जुगल लोचन भरि बारी । बचन कहे कछु जनककुमारी ॥ १ ॥अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना । दीन बंधु प्रनतारति हरना ॥मन क्रम बचन चरन अनुरागी । केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी ॥ २॥अवगुन एक मोर मैं माना । बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना ॥नाथ सो नयनन्हि को अपराधा । निसरत प्रान करहिं हठि बाधा ॥ ३ ॥बिरह अगिनि तनु तूल समीरा । स्वास जरइ छन माहिं सरीरा ॥नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी । जरैं न पाव देह बिरहागी ॥ ४ ॥सीता कै अति बिपति बिसाला । बिनहिं कहें भलि दीनदयाला ॥ ५ ॥
दोहानिमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति ।बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥ ३१ ॥
चौ॰-सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना । भरि आए जल राजिव नयना ॥बचन कायँ मन मम गति जाही । सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही ॥ १ ॥कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई । जब तव सुमिरन भजन न होई ॥केतिक बात प्रभु जातुधान की । रिपुहि जीति आनिबी जानकी ॥ २ ॥सुनु कपि तोहि समान उपकारी । नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ॥प्रति उपकार करौं का तोरा । सनमुख होइ न सकत मन मोरा ॥ ३ ॥सुनु सत तोहि उरिन मैं नाहीं । देखेउँ करि बिचार मन माहीं ॥पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता । लोचन नीर पुलक अति गाता ॥ ४ ॥
दोहासुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत ।चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ॥ ३२ ॥
चौ॰-बार बार प्रभु चहइ उठावा । प्रेम मगन तेहि उठब न भावा ॥प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा । सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ॥ १ ॥सावधान मन करि पुनि संकर । लागे कहन कथा अति सुंदर ॥कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा । कर गहि परम निकट बैठावा ॥ २ ॥कहु कपि रावन पालित लंका । केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ॥प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना । बोला बचन बिगत हनुमाना ॥ ३ ॥साखामृग कै बड़ि मनुसाई । साखा तें साखा पर जाई ॥नाघि सिंधु हाटकपुर जारा । निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा ॥ ४ ॥सो सब तव प्रताप रघुराई । नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ॥ ५ ॥
दोहाता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल ।तव प्रभावँ वड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल ॥ ३३ ॥
चौ॰-नाथ भगति अति सुखदायनी । देहु कृपा करि अनपायनी ॥सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी । एवमस्तु तब कहेउ भवानी ॥ १ ॥उमा राम सुभाउ जेहिं जाना । ताहि भजनु तजि भाव न आना ॥यह संबाद जासु उर आवा । रघुपति चरन भगति सोइ पावा ॥ २ ॥सुनि प्रभु बचन कहहिं कपि बृंदा । जय जय जय कृपाल सुखकंदा ॥तब रघुपति कपिपतिहिं बोलावा । कहा चलैं कर करहु बनावा ॥ ३ ॥अब बिलंबु केहि कारन कीजे । तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे ॥कौतुक देखि सुमन बहु बरषी । नभ तें भवन चले सुर हरषी ॥ ४ ॥
दोहाकपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ ।नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ॥ ३४ ॥
चौ॰-प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा । गर्जहिं भालु महाबल कीसा ॥देखी राम सकल कपि सेना । चितइ कृपा करि राजिव नैना ॥ १ ॥राम कृपा बल पाइ कपिंदा । भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा ॥हरषि राम तब कीन्ह पयाना । सगुन भए सुंदर सुभ नाना ॥ २ ॥जासु सकल मंगलमय कीती । तासु पयान सगुन यह नीती ॥प्रभु पयान जाना बैदेहीं । फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं ॥ ३ ॥जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई । असगुन भयउ रावनहि सोई ॥चला कटकु को बरनैं पारा । गर्जहिं बानर भालु अपारा ॥ ४ ॥नख आयुध गिरि पादपधारी । चले गगन महि इच्छाचारी ॥केहरिनाद भालु कपि करहीं । डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं ॥ ५ ॥
छंद चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे ।मन हरष सब गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे ॥कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं ।जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ॥ १ ॥सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई ।गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई ॥रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी ।जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी ॥ २ ॥
दोहाएहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर ।जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ॥ ३५ ॥
चौ॰-उहाँ निसाचर रहहिं ससंका । जब तें जारि गयउ कपि लंका ॥निज निज गृह सब करहिं बिचारा । नहिं निसिचर कुल केर उबारा ॥ १ ॥जासु दूत बल बरनि न जाई । तेहि आएँ पुर कवन भलाई ॥दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी । मंदोदरी अधिक अकुलानी ॥ २ ॥रहसि जोरि कर पति पग लागी । बोली बचन नीति रस पागी ॥कंत करष हरि सन परिहरहू । मोर कहा अति हित हियँ धरहू ॥ ३ ॥समुझत जासु दूत कइ करनी । स्रवहिं गर्भ रजनीचर धरनी ॥तासु नारि निज सचिव बोलाई । पठवहु कंत जो चहहु भलाई ॥ ४ ॥तव कुल कमल बिपिन दुखदायई । सीता सीत निसा सम आई ॥सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें । हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें ॥ ५ ॥
दोहाराम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक ।जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥ ३६ ॥
चौ॰-श्रवन सुनि सठ ता करि बानी । बिहसा जगत बिदित अभिमानी ॥सभय सुभाउ नारि कर साचा । मंगल महुँ भय मन अति काचा ॥ १ ॥जों आवइ मर्कट कटकाई । जिअहिं बिचारे निसिचर खाई ॥कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा । तासु नारि सभीत बड़ि हासा ॥ २ ॥अस कहि बिहसि ताहि उर लाई । चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ॥मंदोदरी हृदयँ कर चिंता । भयउ कंत पर बिधि बिपरीता ॥ ३ ॥बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई । सिंधु पार सेना सब आई ॥बूझेसि सचिव उचित मत कहेहू । ते सब हँसे मष्ट करि रहेहू ॥ ४ ॥जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं । नर बानर केहि लेखे माहीं ॥ ५ ॥
दोहासचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस ।राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥ ३७ ॥
चौ॰-सोइ रावन कहुँ बनी सहाई । अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई ॥अवसर जानि बिभीषनु आवा । भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा ॥ १ ॥पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन । बोला बचन पाइ अनुसासन ॥जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता । मति अनुरूप कहउँ हित ताता ॥ २ ॥जो आपन चाहै कल्याना । सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ॥सो परनारि लिलार गोसाई । तजउ चउथि के चंद कि नाई ॥ ३ ॥चौदह भुवन एक पति होई । भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई ॥गुन सागर नागर नर जोऊ । अलप लोभ भल कहइ न कोऊ ॥ ४ ॥
दोहाकाम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ ।सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ॥ ३८ ॥
चौ॰-तात राम नहिं नर भूपाला । भुवनेस्वर कालहु कर काला ॥ब्रह्म अनामय अज भगवंता । ब्यापक अजित अनादि अनंता ॥ १ ॥गो द्विज धेनु देव हितकारी । कृपा सिंधु मानुष तनुधारी ॥जन रंजन भंजन खल ब्राता । बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता ॥ २ ॥ताहि बयरु तजि नाइअ माथा । प्रनतारति भंजन रघुनाथा ॥देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही । भजहु राम बिनु हेतु सनेही ॥ ३ ॥सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा । बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ॥जासु नाम त्रय ताप नसावन । सोई प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन ॥ ४ ॥
दोहाबार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस ।परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस ॥ ३९ क ॥मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात ।तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात ॥ ३९ ख ॥
चौ॰-माल्यवंत अति सचिव सयाना । तासु बचन सुनि अति सुख माना ॥तात अनुज तव नीति बिभूषन । सो उर धरहु जो कहत बिभीषन ॥ १ ॥रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ । दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ ॥माल्यवंत गृह गयउ बहोरी । कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी ॥ २ ॥सुमति कुमति सब कें उर रहहीं । नाथ पुरान निगम अस कहहीं ॥जहाँ सुमति तहँ संपति नाना । जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ॥ ३ ॥तव उर कुमति बसी बिपरीता । हित अनहित मानहु रिपु प्रीता ॥कालराति निसिचर कुल केरी । तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ॥ ४ ॥
दोहातात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार ।सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ॥ ४० ॥
चौ॰-बुध पुरान श्रुति संमत बानी । कही बिभीषन नीति बखानी ॥सुनत दसानन उठा रिसाई । खल तोहि निकट मृत्य अब आई ॥ १ ॥जिअसि सदा सठ मोर जिआवा । रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा ॥कहसि न खल अस को जग माहीं । भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं ॥ २ ॥मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती । सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती ॥अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा । अनुज गहे पद बारहिं बारा ॥ ३ ॥उमा संत कइ इहइ बड़ाई । मंद करत जो करइ भलाई ॥तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा । रामु भजें हित नाथ तुम्हारा ॥ ४ ॥सचिव संग लै नभ पथ गयऊ । सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ ॥ ५ ॥
दोहारामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि ।मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि ॥ ४१ ॥
चौ॰-अस कहि चला बिभीषनु जबहीं । आयूहीन भए सब तबहीं ॥साधु अवग्या तुरत भवानी । कर कल्यान अखिल कै हानी ॥ १ ॥रावन जबहिं बिभीषन त्यागा । भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा ॥चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं । करत मनोरथ बहु मन माहीं ॥ २ ॥देखिहउँ जाइ चरन जलजाता । अरुन मृदुल सेवक सुखदाता ॥जे पद पसरि तरी रिषिनारी । दंड़क कानन पावनकारी ॥ ३ ॥जे पद जनकसुताँ उर लाए । कपट कुरंग संग धर धाए ॥हर उर सर सरोज पद जेई । अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई ॥ ४ ॥
दोहाजिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ ।ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ ॥ ४२ ॥
चौ॰-एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा । आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा ॥कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा । जान कोउ रिपु दूत बिसेषा ॥ १ ॥ताहि राखि कपीस पहिं आए । समाचार सब ताहि सुनाए ॥कह सुग्रीव सुनहु रघुराई । आवा मिलन दसानन भाई ॥ २ ॥कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा । कहइ कपीस सुनहु नरनाहा ॥जानि न जाइ निसाचर माया । कामरूप केहि कारन आया ॥ ३ ॥भेद हमार लेन सठ आवा । राखिअ बाँधि मोहि अस भावा ॥सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी । मम पन सरनागत भयहारी ॥ ४ ॥सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना । सरनागत बच्छल भगवाना ॥ ५ ॥
दोहासरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि ।ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ॥ ४३ ॥
चौ॰-कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू । आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ॥सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं । जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥ १ ॥पापवंत कर सहज सुभाऊ । भजहु मोर तेहि भाव न काऊ ॥जौं पै दुष्टहृदय सोइ होई । मोरें सनमुख आव कि सोई ॥ २ ॥निर्मल मन जन सो मोहि पावा । मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥भेद लेन पठवा दससीसा । तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा ॥ ३ ॥जग महुँ सखा निसाचर जेते । लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते ॥जो सभीत आवा सरनाईं । राखिहउँ ताहि प्रान की नाईं ॥ ४ ॥
दोहाउभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत ।जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत ॥ ४४ ॥
चौ॰-सादर तेहि आगें करि बानर । चले जहाँ रघुपति करुनाकर ॥दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता । नयनानंद दान के दाता ॥ १ ॥बहुरि राम छबिधाम बिलोकी । रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी ॥भुज प्रलंब कंजारुन लोचन । स्यामल गात प्रनत भय मोचन ॥ २ ॥सिंघ कंध आयत उर सोहा । आनन अमित मदन मन मोहा ॥नयन नीर पुलकित अति गाता । मन धरि धीर कही मृदु बाता ॥ ३ ॥नाथ दसानन कर मैं भ्राता । निसिचर बंस जनम सुरत्राता ॥सहज पापप्रिय तामस देहा । जथा उलूकहि तम पर नेहा ॥ ४ ॥
दोहाश्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर ।त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥ ४५ ॥
चौ॰-अस कहि करत दंडवत देखा । तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा ॥दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा । भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा ॥ १ ॥अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी । बोले बचन भगत भय हारी ॥कहु लंकेस सहित परिवारा । कुसल कुठाहर बास तुम्हारा ॥ २ ॥खल मंडलीं बसहु दिन राती । सखा धरम निबहइ केहि भाँती ॥मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती । अति नय निपुन न भाव अनीती ॥ ३ ॥बरु भल बास नरक कर ताता । दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ॥अब पद देखि कुसल रघुराया । जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया ॥ ४ ॥
दोहातब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम ।जब लगि भजन न राम कहुँ सोक धाम तजि काम ॥ ४६ ॥
चौ॰-तब लगि हृदयँ बसत खल नाना । लोभ मोह मच्छर मद माना ॥जब लगि उर न बसत रघुनाथा । धरें चाप सायक कटि भाथा ॥ १ ॥ममता तरुन तमी अँधिआरी । राग द्वेष उलूक सुखकारी ॥तब लगि बसति जीव मन माहीं । जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं ॥ २ ॥अब मैं कुसल मिटे भय भारे । देखि राम पद कमल तुम्हारे ॥तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला । ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला ॥ ३ ॥मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ । सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ ॥जासु रूप मुनि ध्यान न आवा । तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा ॥ ४ ॥
दोहाअहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज ।देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज ॥ ४७ ॥
चौ॰-सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ । जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ ॥जौं नर होइ चराचर द्रोही । आवौ सभय सरन तकि मोही ॥ १ ॥तजि मद मोह कपट छल नाना । करउँ सद्य तेहि साधु समाना ॥जननी जनक बंधु सुत दारा । तनु धनु भवन सुहृद परिवारा ॥ २ ॥सब कै ममता ताग बटोरी । मम पद मनहि बाँध बरि डोरी ॥समदरसी इच्छा कछु नाहीं । हरष सोक भय नहिं मन माहीं ॥ ३ ॥अस सज्जन मम उर बस कैसें । लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें ॥तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें । धरउँ देह नहिं आन निहोरें ॥ ४ ॥
दोहासगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम ।ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ॥ ४८ ॥
चौ॰-सुन लंकेस सकल गुन तोरें । तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें ॥राम बचन सुनि बानर जूथा । सकल कहहिं जय कृपा बरूथा ॥ १ ॥सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी । नहिं अघात श्रवनामृत जानी ॥पद अंबुज गहि बारहिं बारा । हृदयँ समात न प्रेमु अपारा ॥ २ ॥सुनहु देव सचराचर स्वामी । प्रनतपाल उर अंतरजामी ॥उर कछु प्रथम बासना रही । प्रभु पद प्रीति सरित सो बही ॥ ३ ॥अब कृपाल निज भगति पावनी । देहु सदा सिव मन भावनी ॥एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा । मागा तुरत सिंधु कर नीरा ॥ ४ ॥जदपि सखा तव इच्छा नाहीं । मोर दरसु अमोघ जग माहीं ॥अस कहि राम तिलक तेहि सारा । सुमन वृष्टि नभ भई अपारा ॥ ५ ॥
दोहारावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड ।जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड ॥ ४९ क ॥जो संपति सिव रावनहि दीन्ह दिएँ दस माथ ।सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ ॥ ४९ ख ॥
चौ॰-अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना । ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना ॥निज जन जानि ताहि अपनावा । प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा ॥ १ ॥पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी । सर्बरूप सब रहित उदासी ॥बोले बचन नीति प्रतिपालक । कारन मनुज दनुज कुल घालक ॥ २ ॥सुनु कपीस लंकापति बीरा । केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा ॥संकुल मकर उरग झष जाती । अति अगाध दुस्तर सब भाँती ॥ ३ ॥कह लंकेस सुनहु रघुनायक । कोटि सिंधु सोषक तव सायक ॥जद्यपि तदपि नीति असि गाई । बिनय करिअ सागर सन जाई ॥ ४ ॥
दोहाप्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि ।बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि ॥ ५० ॥
चौ॰-सखा कही तुम्ह नीकि उपाई । करिअ दैव जौं होइ सहाई ॥मंत्र न यह लछिमन मन भावा । राम बचन सुनि अति दुख पावा ॥ १ ॥नाथ दैव कर कवन भरोसा । सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा ॥कादर मन कहुँ एक अधारा । दैव दैव आलसी पुकारा ॥ २ ॥सुनत बिहसि बोले रघुबीरा । ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा ॥अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई । सिंधि समीप गए रघुराई ॥ ३ ॥प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई । बैठे पुनि तट दर्भ डसाई ॥जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए । पाछें रावन दूत पठाए ॥ ४ ॥
दोहासकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह ।प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह ॥ ५१ ॥
चौ॰-प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ । अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ ॥रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने । सकल बाँधि कपीस पहिं आने ॥ १ ॥कह सुग्रीव सुनहु सब बानर । अंग भंग करि पठवहु निसिचर ॥सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए । बाँधि कटक चहु पास फिराए ॥ २ ॥बहु प्रकार मारन कपि लागे । दीन पुकारत तदपि न त्यागे ॥जो हमार हर नासा काना । तेहि कोसलाधीस कै आना ॥ ३ ॥सुनि लछिमन सब निकट बोलाए । दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए ॥रावन कर दीजहु यह पाती । लछिमन बचन बाचु कुलघाती ॥ ४ ॥
दोहाकहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार ।सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार ॥ ५२ ॥
चौ॰-तुरत नाइ लछिमन पद माथा । चले दूत बरनत गुन गाता ॥कहत राम जसु लंकाँ आए । रावन चरन सीस तिन्ह नाए ॥ १ ॥बिहसि दसानन पूँछी बाता । कहसि न सुक आपनि कुसलाता ॥पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी । जाहि मृत्यु आई अति नेरी ॥ २ ॥करत राज लंका सठ त्यागी । होइहि जव कर कीट अभागी ॥पुनि कहु भालु कीस कटकाई । कठिन काल प्रेरित चलि आई ॥ ३ ॥जिन्ह के जीवन कर रखवारा । भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा ॥कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी । जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी ॥ ४ ॥
दोहाकी भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर ।कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥ ५३ ॥
चौ॰-नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें । मानहु कहा क्रोध तजि तैसें ॥मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा । जातहिं राम तिलक तेहि सारा ॥ १ ॥रावन दूत हमहि सुनि काना । कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना ॥श्रवन नासिका काटैं लागे । राम सपथ दीन्हें हम त्यागे ॥ २ ॥पूँछिहु नाथ राम कटकाई । बदन कोटि सत बरनि न जाई ॥नाना बरन भालु कपि धारी । बिकटानन बिसाल भयकारी ॥ ३ ॥जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा । सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा ॥अमित नाम भट कठिन कराला । अमित नाग बल बिपुल बिसाला ॥ ४ ॥
दोहाद्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि ।दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि ॥ ५४ ॥
चौ॰-ए कपि सब सुग्रीव समाना । इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना ॥राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं । तृन समान त्रैलोकहि गनहीं ॥ १ ॥अस मैं सुना श्रवन दसकंधर । पदुम अठारह जूथप बंदर ॥नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं । जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं ॥ २ ॥परम क्रोध मीजहिं सब हाथा । आयसु पै न देहिं रघुनाथा ॥सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला । पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला ॥ ३ ॥मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा । ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा ॥गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका । मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका ॥ ४ ॥
दोहासहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम ।रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम ॥ ५५ ॥
चौ॰-राम तेज बल बुधि बिपुलाई । सेष सहस सत सकहिं न गाई ॥सक सर एक सोषि सत सागर । तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर ॥ १ ॥तासु बचन सुनि सागर पाहीं । मागत पंथ कृपा मन माहीं ॥सुनत बचन बिहसा दससीसा । जौं असि मति सहाय कृत कीसा ॥ २ ॥सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई । सागर सन ठानी मचलाई ॥मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई । रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई ॥ ३ ॥सचिव सभीत बिभीषन जाकें । बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें ॥सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी । समय बिचार पत्रिका काढ़ी ॥ ४ ॥रामानुज दीन्ही यह पाती । नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती ॥बिहसि बाम कर लीन्ही रावन । सचिव बोलि सठ लाग बचावन ॥ ५ ॥
दोहाबातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस ।राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस ॥ ५६ क ॥की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग ।होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग ॥ ५६ ख ॥
चौ॰-सुनत सभय मन मुख मुसुकाई । कहत दसानन सबहि सुनाई ॥भूमि परा कर गहत अकासा । लघु तापस कर बाग बिलासा ॥ १ ॥कह सुक नाथ सत्य सब बानी । समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी ॥सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा । नाथ राम सन तजहु बिरोधा ॥ २ ॥अति कोमल रघुबीर सुभाऊ । जद्यपि अखिल लोक कर राऊ ॥मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही । उर अपराध न एकउ धरही ॥ ३ ॥जनकसुता रघुनाथहि दीजे । एतना कहा मोर प्रभु कीजे ॥जब तेहि कहा देन बैदेही । चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही ॥ ४ ॥नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ । कृपासिंधु रघुनायक जहाँ ॥करि प्रनामु निज कथा सुनाई । राम कृपाँ आपनि गति पाई ॥ ५ ॥रिषि अगस्ति कीं साप भवानी । राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी ॥बंदि राम पद बारहिं बारा । मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा ॥ ६ ॥
दोहाबिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति ।बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति ॥ ५७ ॥
चौ॰-लछिमन बान सरासन आनू । सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू ॥सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती । सहज कृपन सन सुंदर नीती ॥ १ ॥ममता रत सन ग्यान कहानी । अति लोभी सन बिरति बखानी ॥क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा । ऊसर बीज बएँ फल जथा ॥ २ ॥अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा । यह मत लछिमन के मन भावा ॥संधानेउ प्रभु बिसिख कराला । उठी उदधि उर अंतर ज्वाला ॥ ३ ॥मकर उरग झष गन अकुलाने । जरत जंतु जलनिधि जब जाने ॥कनक थार भरि मनि गन नाना । बिप्र रूप आयउ तजि माना ॥ ४ ॥
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच ।बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ॥ ५८ ॥
चौ॰-सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे । छमहु नाथ सब अवगुन मेरे ॥गगन समीर अनल जल धरनी । इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी ॥ १ ॥तव प्रेरित मायाँ उपजाए । सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए ॥प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई । सो तेहि भाँति रहें सुख लहई ॥ २ ॥प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही । मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही ॥ढोल गँवार सूद्र पसु नारी । सकल ताड़ना के अधिकारी ॥ ३ ॥प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई । उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई ॥प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई । करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई ॥ ४ ॥
दोहासुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ ।जेहि बिधि उतरैं कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ ॥ ५९ ॥
चौ॰-नाथ नील नल कपि द्वौ भाई । लरिकाईं रिषि आसिष पाई ।तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे । तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ॥ १ ॥मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई । करिहउँ बल अनुमान सहाई ॥एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ । जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ ॥ २ ॥एहिं सर मम उत्तर तट बासी । हतहु नाथ खल नर अघ रासी ॥सुनि कृपाल सागर मन पीरा । तुरतहिं हरी राम रन धीरा ॥ ३ ॥देखि राम बल पौरुष भारी । हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी ॥सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा । चरन बंदि पाथोधि सिधावा ॥ ४ ॥
छंद निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ ।यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गाउअऊ ॥सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना ।तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना ॥
दोहासकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान ।सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान ॥ ६० ॥
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पञ्चमः सोपानः समाप्तः ।
॥ सियावर रामचन्द्र की जै ॥<
मानस के मन्त्र
१॰ प्रभु की कृपा पाने का मन्त्र“मूक होई वाचाल, पंगु चढ़ई गिरिवर गहन।जासु कृपा सो दयाल, द्रवहु सकल कलिमल-दहन।।”
विधि-प्रभु राम की पूजा करके गुरूवार के दिन से कमलगट्टे की माला पर २१ दिन तक प्रातः और सांय नित्य एक माला (१०८ बार) जप करें।लाभ-प्रभु की कृपा प्राप्त होती है। दुर्भाग्य का अन्त हो जाता है।
२॰ रामजी की अनुकम्पा पाने का मन्त्र“बन्दउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को।।”
विधि-रविवार के दिन से रुद्राक्ष की माला पर १००० बार प्रतिदिन ४० दिन तक जप करें।लाभ- निष्काम भक्तों के लिये प्रभु श्रीराम की अनुकम्पा पाने का अमोघ मन्त्र है।
३॰ हनुमान जी की कृपा पाने का मन्त्र“प्रनउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानधन।जासु ह्रदय आगार बसहिं राम सर चाप धर।।”
विधि- भगवान् हनुमानजी की सिन्दूर युक्त प्रतिमा की पूजा करके लाल चन्दन की माला से मंगलवार से प्रारम्भ करके २१ दिन तक नित्य १००० जप करें।लाभ- हनुमानजी की विशेष कृपा प्राप्त होती है। अला-बला, किये-कराये अभिचार का अन्त होता है।
४॰ वशीकरण के लिये मन्त्र“जो कह रामु लखनु बैदेही। हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेहि।।”
विधि- सूर्यग्रहण के समय पूर्ण ‘पर्वकाल’ के दौरान इस मन्त्र को जपता रहे, तो मन्त्र सिद्ध हो जायेगा। इसके पश्चात् जब भी आवश्यकता हो इस मन्त्र को सात बार पढ़ कर गोरोचन का तिलक लगा लें।लाभ- इस प्रकार करने से वशीकरण होता है।
५॰ सफलता पाने का मन्त्र“प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देव।सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब।।”
विधि- प्रतिदिन इस मन्त्र के १००८ पाठ करने चाहियें। इस मन्त्र के प्रभाव से सभी कार्यों में अपुर्व सफलता मिलती है।
६॰ रामजी की पूजा अर्चना का मन्त्र“अब नाथ करि करुना, बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।जेहिं जोनि जन्मौं कर्म, बस तहँ रामपद अनुरागऊँ।।”
विधि- प्रतिदिन मात्र ७ बार पाठ करने मात्र से ही लाभ मिलता है।लाभ- इस मन्त्र से जन्म-जन्मान्तर में श्रीराम की पूजा-अर्चना का अधिकार प्राप्त हो जाता है।
७॰ मन की शांति के लिये राम मन्त्र“राम राम कहि राम कहि। राम राम कहि राम।।”
विधि- जिस आसन में सुगमता से बैठ सकते हैं, बैठ कर ध्यान प्रभु श्रीराम में केन्द्रित कर यथाशक्ति अधिक-से-अधिक जप करें। इस प्रयोग को २१ दिन तक करते रहें।लाभ- मन को शांति मिलती है।
८॰ पापों के क्षय के लिये मन्त्र“मोहि समान को पापनिवासू।।”
विधि- रुद्राक्ष की माला पर प्रतिदिन १००० बार ४० दिन तक जप करें तथा अपने नाते-रिश्तेदारों से कुछ सिक्के भिक्षा के रुप में प्राप्त करके गुरुवार के दिन विष्णुजी के मन्दिर में चढ़ा दें।लाभ- मन्त्र प्रयोग से समस्त पापों का क्षय हो जाता है।
९॰ श्रीराम प्रसन्नता का मन्त्र“अरथ न धरम न काम रुचि, गति न चहउँ निरबान।जनम जनम रति राम पद यह बरदान न आन।।”
विधि- इस मन्त्र को यथाशक्ति अधिक-से-अधिक संख्या में ४० दिन तक जप करते रहें और प्रतिदिन प्रभु श्रीराम की प्रतिमा के सन्मुख भी सात बार जप अवश्य करें।लाभ- जन्म-जन्मान्तर तक श्रीरामजी की पूजा का स्मरण रहता है और प्रभुश्रीराम प्रसन्न होते हैं।
१०॰ संकट नाशन मन्त्र“दीन दयाल बिरिदु सम्भारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।”
विधि- लाल चन्दन की माला पर २१ दिन तक निरन्तर १०००० बार जप करें।लाभ- विकट-से-विकट संकट भी प्रभु श्रीराम की कृपा से दूर हो जाते हैं।
११॰ विघ्ननाशक गणेश मन्त्र“जो सुमिरत सिधि होइ, गननायक करिबर बदन।करउ अनुग्रह सोई बुद्धिरासी सुभ गुन सदन।।”
विधि- गणेशजी को सिन्दूर का चोला चढ़ायें और प्रतिदिन लाल चन्दन की माला से प्रातःकाल १०८० (१० माला) इस मन्त्र का जाप ४० दिन तक करते रहें।लाभ- सभी विघ्नों का अन्त होकर गणेशजी का अनुग्रह प्राप्त होता है।





श्री राम शलाका प्रश्नावली
श्री राम शलाका प्रश्नावली
सु
प्र

बि
हो
मु


सु
नु
वि

धि



रु

सि
सि
रें
बस
है
मं






सुज
सी

सु
कु







धा
बे
अं
त्य


कु
जो

रि



की
हो
सं
रा

पु
सु

सी
जे



सं

रे
हो


नि










चि



तु

का



मा
मि
मी
म्हा

जा
हु
हीं

जू
ता
रा
रे
री
ह्र
का

खा
जि


रा
पू


नि
को
मि
गो




ने
मनि





हि
रा


रि





खि
जि
मनि

जं
सिं
मु


कौ
मि



धु

सु
का


गु




नि





ती

रि

ना
पु


ढा


का

तू


नु


सि

सु
म्हा
रा


हिं








सा

ला
धी

री
जा
हू
हीं
षा
जू

रा
रे









विधि-श्रीरामचन्द्रजी का ध्यान कर अपने प्रश्न को मन में दोहरायें। फिर ऊपर दी गई सारणी में से किसी एक अक्षर अंगुली रखें। अब उससे अगले अक्षर से क्रमशः नौवां अक्षर लिखते जायें जब तक पुनः उसी जगह नहीं पहुँच जायें। इस प्रकार एक चौपाई बनेगी, जो अभीष्ट प्रश्न का उत्तर होगी।

सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।
यह चौपाई बालकाण्ड में श्रीसीताजी के गौरीपूजन के प्रसंग में है। गौरीजी ने श्रीसीताजी को आशीर्वाद दिया है।
फलः- प्रश्नकर्त्ता का प्रश्न उत्तम है, कार्य सिद्ध होगा।

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। हृदय राखि कोसलपुर राजा।
यह चौपाई सुन्दरकाण्ड में हनुमानजी के लंका में प्रवेश करने के समय की है।
फलः-भगवान् का स्मरण करके कार्यारम्भ करो, सफलता मिलेगी।
उघरें अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू।।
यह चौपाई बालकाण्ड के आरम्भ में सत्संग-वर्णन के प्रसंग में है।
फलः-इस कार्य में भलाई नहीं है। कार्य की सफलता में सन्देह है।
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं।।
यह चौपाई बालकाण्ड के आरम्भ में सत्संग-वर्णन के प्रसंग में है।
फलः-खोटे मनुष्यों का संग छोड़ दो। कार्य की सफलता में सन्देह है।
होइ है सोई जो राम रचि राखा। को करि तरक बढ़ावहिं साषा।।
यह चौपाई बालकाण्डान्तर्गत शिव और पार्वती के संवाद में है।
फलः-कार्य होने में सन्देह है, अतः उसे भगवान् पर छोड़ देना श्रेयष्कर है।
मुद मंगलमय संत समाजू। जिमि जग जंगम तीरथ राजू।।
यह चौपाई बालकाण्ड में संत-समाजरुपी तीर्थ के वर्णन में है।
फलः-प्रश्न उत्तम है। कार्य सिद्ध होगा।
गरल सुधा रिपु करय मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।।
यह चौपाई श्रीहनुमान् जी के लंका प्रवेश करने के समय की है।
फलः-प्रश्न बहुत श्रेष्ठ है। कार्य सफल होगा।
बरुन कुबेर सुरेस समीरा। रन सनमुख धरि काह न धीरा।।
यह चौपाई लंकाकाण्ड में रावन की मृत्यु के पश्चात् मन्दोदरी के विलाप के प्रसंग में है।
फलः-कार्य पूर्ण होने में सन्देह है।
सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। राम लखनु सुनि भए सुखारे।।
यह चौपाई बालकाण्ड पुष्पवाटिका से पुष्प लाने पर विश्वामित्रजी का आशीर्वाद है।
फलः-प्रश्न बहुत उत्तम है। कार्य सिद्ध होगा।









मानस के सिद्ध स्तोत्रों के अनुभूत प्रयोग
मानस के सिद्ध स्तोत्रों के अनुभूत प्रयोग
१॰ ऐश्वर्य प्राप्ति‘माता सीता की स्तुति’ का नित्य श्रद्धा-विश्वासपूर्वक पाठ करें।
“उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्।।” (बालकाण्ड, श्लो॰ ५)”
अर्थः- उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने वाली, क्लेशों की हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों की करने वाली श्रीरामचन्द्र की प्रियतमा श्रीसीता को मैं नमस्कार करता हूँ।।
२॰ दुःख-नाश‘भगवान् राम की स्तुति’ का नित्य पाठ करें।
“यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरायत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतांवन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्।।” (बालकाण्ड, श्लो॰ ६)
अर्थः- सारा विश्व जिनकी माया के वश में है और ब्रह्मादि देवता एवं असुर भी जिनकी माया के वश-वर्ती हैं। यह सब सत्य जगत् जिनकी सत्ता से ही भासमान है, जैसे कि रस्सी में सर्प की प्रतीति होती है। भव-सागर के तरने की इच्छा करनेवालों के लिये जिनके चरण निश्चय ही एक-मात्र प्लव-रुप हैं, जो सम्पूर्ण कारणों से परे हैं, उन समर्थ, दुःख हरने वाले, श्रीराम है नाम जिनका, मैं उनकी वन्दना करता हूँ।
३॰ सर्व-रक्षा‘भगवान् शिव की स्तुति’ का नित्य पाठ करें।
“यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट, सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम ” (अयोध्याकाण्ड, श्लो॰१)
अर्थः- जिनकी गोद में हिमाचल-सुता पार्वतीजी, मस्तक पर गंगाजी, ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा, कण्ठ में हलाहल विष और वक्षःस्थल पर सर्पराज शेषजी सुशोभित हैं, वे भस्म से विभूषित, देवताओं में श्रेष्ठ, सर्वेश्वर, संहार-कर्त्ता, सर्व-व्यापक, कल्याण-रुप, चन्द्रमा के समान शुभ्र-वर्ण श्रीशंकरजी सदा मेरी रक्षा करें।
४॰ सुखमय पारिवारिक जीवन‘श्रीसीता जी के सहित भगवान् राम की स्तुति’ का नित्य पाठ करें।
“नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम, पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम ” (अयोध्याकाण्ड, श्लो॰ ३)
अर्थः- नीले कमल के समान श्याम और कोमल जिनके अंग हैं, श्रीसीताजी जिनके वाम-भाग में विराजमान हैं और जिनके हाथों में (क्रमशः) अमोघ बाण और सुन्दर धनुष है, उन रघुवंश के स्वामी श्रीरामचन्द्रजी को मैं नमस्कार करता हूँ।।
५॰ सर्वोच्च पद प्राप्तिश्री अत्रि मुनि द्वारा ‘श्रीराम-स्तुति’ का नित्य पाठ करें।छंदः-“नमामि भक्त वत्सलं । कृपालु शील कोमलं ॥भजामि ते पदांबुजं । अकामिनां स्वधामदं ॥निकाम श्याम सुंदरं । भवाम्बुनाथ मंदरं ॥प्रफुल्ल कंज लोचनं । मदादि दोष मोचनं ॥प्रलंब बाहु विक्रमं । प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥निषंग चाप सायकं । धरं त्रिलोक नायकं ॥दिनेश वंश मंडनं । महेश चाप खंडनं ॥मुनींद्र संत रंजनं । सुरारि वृंद भंजनं ॥मनोज वैरि वंदितं । अजादि देव सेवितं ॥विशुद्ध बोध विग्रहं । समस्त दूषणापहं ॥नमामि इंदिरा पतिं । सुखाकरं सतां गतिं ॥भजे सशक्ति सानुजं । शची पतिं प्रियानुजं ॥त्वदंघ्रि मूल ये नराः । भजंति हीन मत्सरा ॥पतंति नो भवार्णवे । वितर्क वीचि संकुले ॥विविक्त वासिनः सदा । भजंति मुक्तये मुदा ॥निरस्य इंद्रियादिकं । प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥तमेकमभ्दुतं प्रभुं । निरीहमीश्वरं विभुं ॥जगद्गुरुं च शाश्वतं । तुरीयमेव केवलं ॥भजामि भाव वल्लभं । कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥स्वभक्त कल्प पादपं । समं सुसेव्यमन्वहं ॥अनूप रूप भूपतिं । नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥प्रसीद मे नमामि ते । पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥पठंति ये स्तवं इदं । नरादरेण ते पदं ॥व्रजंति नात्र संशयं । त्वदीय भक्ति संयुता ॥” (अरण्यकाण्ड)
‘मानस-पीयूष’ के अनुसार यह ‘रामचरितमानस’ की नवीं स्तुति है और नक्षत्रों में नवाँ नक्षत्र अश्लेषा है। अतः जीवन में जिनको सर्वोच्च आसन पर जाने की कामना हो, वे इस स्तोत्र को भगवान् श्रीराम के चित्र या मूर्ति के सामने बैठकर नित्य पढ़ा करें। वे अवश्य ही अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी कर लेंगे।
६॰ प्रतियोगिता में सफलता-प्राप्तिश्री सुतीक्ष्ण मुनि द्वारा श्रीराम-स्तुति का नित्य पाठ करें।
“श्याम तामरस दाम शरीरं । जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं ॥पाणि चाप शर कटि तूणीरं । नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं ॥१॥मोह विपिन घन दहन कृशानुः । संत सरोरुह कानन भानुः ॥निशिचर करि वरूथ मृगराजः । त्रातु सदा नो भव खग बाजः ॥२॥अरुण नयन राजीव सुवेशं । सीता नयन चकोर निशेशं ॥हर ह्रदि मानस बाल मरालं । नौमि राम उर बाहु विशालं ॥३॥संशय सर्प ग्रसन उरगादः । शमन सुकर्कश तर्क विषादः ॥भव भंजन रंजन सुर यूथः । त्रातु सदा नो कृपा वरूथः ॥४॥निर्गुण सगुण विषम सम रूपं । ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं ॥अमलमखिलमनवद्यमपारं । नौमि राम भंजन महि भारं ॥५॥भक्त कल्पपादप आरामः । तर्जन क्रोध लोभ मद कामः ॥अति नागर भव सागर सेतुः । त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः ॥६॥अतुलित भुज प्रताप बल धामः । कलि मल विपुल विभंजन नामः ॥धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः । संतत शं तनोतु मम रामः ॥७॥” (अरण्यकाण्ड)
विशेषः “संशय-सर्प-ग्रसन-उरगादः, शमन-सुकर्कश-तर्क-विषादः।भव-भञ्जन रञ्जन-सुर-यूथः, त्रातु सदा मे कृपा-वरुथः।।”उपर्युक्त श्लोक अमोघ फल-दाता है। किसी भी प्रतियोगिता के साक्षात्कार में सफलता सुनिश्चित है।
७॰ सर्व अभिलाषा-पूर्ति‘श्रीहनुमान जी कि स्तुति’ का नित्य पाठ करें।
“अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहंदनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।सकलगुणनिधानं वानराणामधीशंरघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।” (सुन्दरकाण्ड, श्लो॰३)
८॰ सर्व-संकट-निवारण‘रुद्राष्टक’ का नित्य पाठ करें।
॥ श्रीरुद्राष्टकम् ॥
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥ १॥
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ॥ २॥
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम् ।स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥ ३॥
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥ ४॥
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् ।त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥ ५॥
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।चिदानन्द संदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥ ६॥
न यावत् उमानाथ पादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।न तावत् सुखं शान्ति सन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥ ७॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ।जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥ ८॥
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥
॥ इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं संपूर्णम् ॥विशेषः- उक्त ‘रुद्राष्टक’ को स्नानोपरान्त भीगे कपड़े सहित शिवजी के सामने सस्वर पाठ करने से किसी भी प्रकार का शाप या संकट कट जाता है। यदि भीगे कपड़े सहित पाठ की सुविधा न हो, तो घर पर या शिव-मन्दिर में भी तीन बार, पाचँ बार, आठ बार पाठ करके मनोवाञ्छित फल पाया जा सकता है। यह सिद्ध प्रयोग है। विशेषकर ‘नाग-पञ्चमी’ पर रुद्राष्टक का पाठ विशेष फलदायी है।


« श्री रामचरित मानस के सिद्ध मन्त्र
श्री राम शलाका प्रश्नावली »
आरती श्री रामायणजी की
आरती श्री रामायणजी की~~~~~~~~~~~~~~~~~आरति श्री रामायण जी की ।कीरति कलित ललित सिय-पी की ॥ आरति……गावत ब्रह्मादिक मुनि नारद ।बालमीक बिज्ञान बिसारद ॥सुक सनकादि शेष अरू सारद ।बरनि पवनसुत कीरति नीकी ॥ आरति……गावत वेद पुरान अष्टदस ।छओ सास्त्र सब ग्रंथन को रस ॥सार अंस सम्मत सबही की ॥ आरति……गावत संतत संभु भवानी ।अरू घटसंभव मुनि बिग्यानी ॥व्यास आदि कविबर्ज बखानी ।कागभुसुंडि गरूड़ के ही की ॥ आरति……कलिमल हरनि विषय रस फ़ीकी ।सुभग सिंगार मुक्ति जुबती की ॥दलन रोग भव मूरि अमी की ।तात मात सब बिधि तुलसी की ॥ आरति……

श्री रामचरित मानस के सिद्ध मन्त्र
श्री रामचरित मानस के सिद्ध ‘मन्त्र’
नियम-मानस के दोहे-चौपाईयों को सिद्ध करने का विधान यह है कि किसी भी शुभ दिन की रात्रि को दस बजे के बाद अष्टांग हवन के द्वारा मन्त्र सिद्ध करना चाहिये। फिर जिस कार्य के लिये मन्त्र-जप की आवश्यकता हो, उसके लिये नित्य जप करना चाहिये। वाराणसी में भगवान् शंकरजी ने मानस की चौपाइयों को मन्त्र-शक्ति प्रदान की है-इसलिये वाराणसी की ओर मुख करके शंकरजी को साक्षी बनाकर श्रद्धा से जप करना चाहिये।अष्टांग हवन सामग्री१॰ चन्दन का बुरादा, २॰ तिल, ३॰ शुद्ध घी, ४॰ चीनी, ५॰ अगर, ६॰ तगर, ७॰ कपूर, ८॰ शुद्ध केसर, ९॰ नागरमोथा, १०॰ पञ्चमेवा, ११॰ जौ और १२॰ चावल।जानने की बातें-जिस उद्देश्य के लिये जो चौपाई, दोहा या सोरठा जप करना बताया गया है, उसको सिद्ध करने के लिये एक दिन हवन की सामग्री से उसके द्वारा (चौपाई, दोहा या सोरठा) १०८ बार हवन करना चाहिये। यह हवन केवल एक दिन करना है। मामूली शुद्ध मिट्टी की वेदी बनाकर उस पर अग्नि रखकर उसमें आहुति दे देनी चाहिये। प्रत्येक आहुति में चौपाई आदि के अन्त में ‘स्वाहा’ बोल देना चाहिये।प्रत्येक आहुति लगभग पौन तोले की (सब चीजें मिलाकर) होनी चाहिये। इस हिसाब से १०८ आहुति के लिये एक सेर (८० तोला) सामग्री बना लेनी चाहिये। कोई चीज कम-ज्यादा हो तो कोई आपत्ति नहीं। पञ्चमेवा में पिश्ता, बादाम, किशमिश (द्राक्षा), अखरोट और काजू ले सकते हैं। इनमें से कोई चीज न मिले तो उसके बदले नौजा या मिश्री मिला सकते हैं। केसर शुद्ध ४ आने भर ही डालने से काम चल जायेगा।हवन करते समय माला रखने की आवश्यकता १०८ की संख्या गिनने के लिये है। बैठने के लिये आसन ऊन का या कुश का होना चाहिये। सूती कपड़े का हो तो वह धोया हुआ पवित्र होना चाहिये।मन्त्र सिद्ध करने के लिये यदि लंकाकाण्ड की चौपाई या दोहा हो तो उसे शनिवार को हवन करके करना चाहिये। दूसरे काण्डों के चौपाई-दोहे किसी भी दिन हवन करके सिद्ध किये जा सकते हैं।सिद्ध की हुई रक्षा-रेखा की चौपाई एक बार बोलकर जहाँ बैठे हों, वहाँ अपने आसन के चारों ओर चौकोर रेखा जल या कोयले से खींच लेनी चाहिये। फिर उस चौपाई को भी ऊपर लिखे अनुसार १०८ आहुतियाँ देकर सिद्ध करना चाहिये। रक्षा-रेखा न भी खींची जाये तो भी आपत्ति नहीं है। दूसरे काम के लिये दूसरा मन्त्र सिद्ध करना हो तो उसके लिये अलग हवन करके करना होगा।एक दिन हवन करने से वह मन्त्र सिद्ध हो गया। इसके बाद जब तक कार्य सफल न हो, तब तक उस मन्त्र (चौपाई, दोहा) आदि का प्रतिदिन कम-से-कम १०८ बार प्रातःकाल या रात्रि को, जब सुविधा हो, जप करते रहना चाहिये।कोई दो-तीन कार्यों के लिये दो-तीन चौपाइयों का अनुष्ठान एक साथ करना चाहें तो कर सकते हैं। पर उन चौपाइयों को पहले अलग-अलग हवन करके सिद्ध कर लेना चाहिये।
१॰ विपत्ति-नाश के लिये“राजिव नयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक।।”२॰ संकट-नाश के लिये“जौं प्रभु दीन दयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा।।जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।।दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।”३॰ कठिन क्लेश नाश के लिये“हरन कठिन कलि कलुष कलेसू। महामोह निसि दलन दिनेसू॥”४॰ विघ्न शांति के लिये“सकल विघ्न व्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥”५॰ खेद नाश के लिये“जब तें राम ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥”६॰ चिन्ता की समाप्ति के लिये“जय रघुवंश बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृशानू॥”७॰ विविध रोगों तथा उपद्रवों की शान्ति के लिये“दैहिक दैविक भौतिक तापा।राम राज काहूहिं नहि ब्यापा॥”८॰ मस्तिष्क की पीड़ा दूर करने के लिये“हनूमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे।।”९॰ विष नाश के लिये“नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।”१०॰ अकाल मृत्यु निवारण के लिये“नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहि बाट।।”११॰ सभी तरह की आपत्ति के विनाश के लिये / भूत भगाने के लिये“प्रनवउँ पवन कुमार,खल बन पावक ग्यान घन।जासु ह्रदयँ आगार, बसहिं राम सर चाप धर॥”१२॰ नजर झाड़ने के लिये“स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।।”१३॰ खोयी हुई वस्तु पुनः प्राप्त करने के लिए“गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।।”१४॰ जीविका प्राप्ति केलिये“बिस्व भरण पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।”१५॰ दरिद्रता मिटाने के लिये“अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद धन दारिद दवारि के।।”१६॰ लक्ष्मी प्राप्ति के लिये“जिमि सरिता सागर महुँ जाही। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।।”१७॰ पुत्र प्राप्ति के लिये“प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात न जान।सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।’१८॰ सम्पत्ति की प्राप्ति के लिये“जे सकाम नर सुनहि जे गावहि।सुख संपत्ति नाना विधि पावहि।।”१९॰ ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के लिये“साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ।।”२०॰ सर्व-सुख-प्राप्ति के लियेसुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई।।२१॰ मनोरथ-सिद्धि के लिये“भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि।।”२२॰ कुशल-क्षेम के लिये“भुवन चारिदस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू।।”२३॰ मुकदमा जीतने के लिये“पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।”२४॰ शत्रु के सामने जाने के लिये“कर सारंग साजि कटि भाथा। अरिदल दलन चले रघुनाथा॥”२५॰ शत्रु को मित्र बनाने के लिये“गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।।”२६॰ शत्रुतानाश के लिये“बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥”२७॰ वार्तालाप में सफ़लता के लिये“तेहि अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥”२८॰ विवाह के लिये“तब जनक पाइ वशिष्ठ आयसु ब्याह साजि सँवारि कै।मांडवी श्रुतकीरति उरमिला, कुँअरि लई हँकारि कै॥”२९॰ यात्रा सफ़ल होने के लिये“प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदयँ राखि कोसलपुर राजा॥”३०॰ परीक्षा / शिक्षा की सफ़लता के लिये“जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥”३१॰ आकर्षण के लिये“जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥”३२॰ स्नान से पुण्य-लाभ के लिये“सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।।”३३॰ निन्दा की निवृत्ति के लिये“राम कृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी।।३४॰ विद्या प्राप्ति के लियेगुरु गृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल विद्या सब आई॥३५॰ उत्सव होने के लिये“सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु।।”३६॰ यज्ञोपवीत धारण करके उसे सुरक्षित रखने के लिये“जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।”३७॰ प्रेम बढाने के लियेसब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥३८॰ कातर की रक्षा के लिये“मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहिं अवसर सहाय सोइ होऊ।।”३९॰ भगवत्स्मरण करते हुए आराम से मरने के लियेरामचरन दृढ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग । सुमन माल जिमि कंठ तें गिरत न जानइ नाग ॥४०॰ विचार शुद्ध करने के लिये“ताके जुग पद कमल मनाउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ।।”४१॰ संशय-निवृत्ति के लिये“राम कथा सुंदर करतारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी।।”४२॰ ईश्वर से अपराध क्षमा कराने के लिये” अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता।।”४३॰ विरक्ति के लिये“भरत चरित करि नेमु तुलसी जे सादर सुनहिं।सीय राम पद प्रेमु अवसि होइ भव रस बिरति।।”४४॰ ज्ञान-प्राप्ति के लिये“छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।”४५॰ भक्ति की प्राप्ति के लिये“भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपासिंधु सुखधाम।सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम।।”४६॰ श्रीहनुमान् जी को प्रसन्न करने के लिये“सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपनें बस करि राखे रामू।।”४७॰ मोक्ष-प्राप्ति के लिये“सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा। काल सर्प जनु चले सपच्छा।।”४८॰ श्री सीताराम के दर्शन के लिये“नील सरोरुह नील मनि नील नीलधर श्याम । लाजहि तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥”४९॰ श्रीजानकीजी के दर्शन के लिये“जनकसुता जगजननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की।।”५०॰ श्रीरामचन्द्रजी को वश में करने के लिये“केहरि कटि पट पीतधर सुषमा सील निधान।देखि भानुकुल भूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान।।”५१॰ सहज स्वरुप दर्शन के लिये“भगत बछल प्रभु कृपा निधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना।।”
मन्त्र रामायण

मानस के मन्त्र
१॰ प्रभु की कृपा पाने का मन्त्र“मूक होई वाचाल, पंगु चढ़ई गिरिवर गहन।जासु कृपा सो दयाल, द्रवहु सकल कलिमल-दहन।।”
विधि-प्रभु राम की पूजा करके गुरूवार के दिन से कमलगट्टे की माला पर २१ दिन तक प्रातः और सांय नित्य एक माला (१०८ बार) जप करें।लाभ-प्रभु की कृपा प्राप्त होती है। दुर्भाग्य का अन्त हो जाता है।
२॰ रामजी की अनुकम्पा पाने का मन्त्र“बन्दउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को।।”
विधि-रविवार के दिन से रुद्राक्ष की माला पर १००० बार प्रतिदिन ४० दिन तक जप करें।लाभ- निष्काम भक्तों के लिये प्रभु श्रीराम की अनुकम्पा पाने का अमोघ मन्त्र है।
३॰ हनुमान जी की कृपा पाने का मन्त्र“प्रनउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानधन।जासु ह्रदय आगार बसहिं राम सर चाप धर।।”
विधि- भगवान् हनुमानजी की सिन्दूर युक्त प्रतिमा की पूजा करके लाल चन्दन की माला से मंगलवार से प्रारम्भ करके २१ दिन तक नित्य १००० जप करें।लाभ- हनुमानजी की विशेष कृपा प्राप्त होती है। अला-बला, किये-कराये अभिचार का अन्त होता है।
४॰ वशीकरण के लिये मन्त्र“जो कह रामु लखनु बैदेही। हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेहि।।”
विधि- सूर्यग्रहण के समय पूर्ण ‘पर्वकाल’ के दौरान इस मन्त्र को जपता रहे, तो मन्त्र सिद्ध हो जायेगा। इसके पश्चात् जब भी आवश्यकता हो इस मन्त्र को सात बार पढ़ कर गोरोचन का तिलक लगा लें।लाभ- इस प्रकार करने से वशीकरण होता है।
५॰ सफलता पाने का मन्त्र“प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देव।सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब।।”
विधि- प्रतिदिन इस मन्त्र के १००८ पाठ करने चाहियें। इस मन्त्र के प्रभाव से सभी कार्यों में अपुर्व सफलता मिलती है।
६॰ रामजी की पूजा अर्चना का मन्त्र“अब नाथ करि करुना, बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।जेहिं जोनि जन्मौं कर्म, बस तहँ रामपद अनुरागऊँ।।”
विधि- प्रतिदिन मात्र ७ बार पाठ करने मात्र से ही लाभ मिलता है।लाभ- इस मन्त्र से जन्म-जन्मान्तर में श्रीराम की पूजा-अर्चना का अधिकार प्राप्त हो जाता है।
७॰ मन की शांति के लिये राम मन्त्र“राम राम कहि राम कहि। राम राम कहि राम।।”
विधि- जिस आसन में सुगमता से बैठ सकते हैं, बैठ कर ध्यान प्रभु श्रीराम में केन्द्रित कर यथाशक्ति अधिक-से-अधिक जप करें। इस प्रयोग को २१ दिन तक करते रहें।लाभ- मन को शांति मिलती है।
८॰ पापों के क्षय के लिये मन्त्र“मोहि समान को पापनिवासू।।”
विधि- रुद्राक्ष की माला पर प्रतिदिन १००० बार ४० दिन तक जप करें तथा अपने नाते-रिश्तेदारों से कुछ सिक्के भिक्षा के रुप में प्राप्त करके गुरुवार के दिन विष्णुजी के मन्दिर में चढ़ा दें।लाभ- मन्त्र प्रयोग से समस्त पापों का क्षय हो जाता है।
९॰ श्रीराम प्रसन्नता का मन्त्र“अरथ न धरम न काम रुचि, गति न चहउँ निरबान।जनम जनम रति राम पद यह बरदान न आन।।”
विधि- इस मन्त्र को यथाशक्ति अधिक-से-अधिक संख्या में ४० दिन तक जप करते रहें और प्रतिदिन प्रभु श्रीराम की प्रतिमा के सन्मुख भी सात बार जप अवश्य करें।लाभ- जन्म-जन्मान्तर तक श्रीरामजी की पूजा का स्मरण रहता है और प्रभुश्रीराम प्रसन्न होते हैं।
१०॰ संकट नाशन मन्त्र“दीन दयाल बिरिदु सम्भारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।”
विधि- लाल चन्दन की माला पर २१ दिन तक निरन्तर १०००० बार जप करें।लाभ- विकट-से-विकट संकट भी प्रभु श्रीराम की कृपा से दूर हो जाते हैं।
११॰ विघ्ननाशक गणेश मन्त्र“जो सुमिरत सिधि होइ, गननायक करिबर बदन।करउ अनुग्रह सोई बुद्धिरासी सुभ गुन सदन।।”
विधि- गणेशजी को सिन्दूर का चोला चढ़ायें और प्रतिदिन लाल चन्दन की माला से प्रातःकाल १०८० (१० माला) इस मन्त्र का जाप ४० दिन तक करते रहें।लाभ- सभी विघ्नों का अन्त होकर गणेशजी का अनुग्रह प्राप्त होता है।

No comments: